Bhaktamar Stotra in sanskrit:भक्तामर स्तोत्र के नियमित पढ़ने से कैंसर से मुक्ति मिल सकती है, खासतौर पर पद 45 के पढ़ने से। भक्तामर स्तोत्र की रचना कब हुई, कैसे हुई और क्यों हुई, कैसे पढ़ें, कब पढ़ें और किस तरह पढ़ें? आदि सब जानें।
भक्तामर स्तोत्र का जैन धर्म में बडा महत्व है। आचार्य मानतुंग का लिखा भक्तामर स्तोत्र सभी जैन परंपराओं में सबसे लोकप्रिय संस्कृत प्रार्थना है।
इस स्तोत्र के बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। इसमें सबसे प्रसिद्ध किदवंती यह है कि आचार्य मानतुंग को जब राजा भोज ने जेल में बंद करवा दिया था। और उस जेल के 48 दरवाजे थे जिन पर 48 मजबूत ताले लगे हुए थे। तब आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा हर श्लोक की रचना ताला टूटता गया। इस तरह 48 शलोको पर 48 ताले टूट गए।
मानतुंग आचार्य 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है। मंत्र शक्ति में आस्था रखने वालो के लिए यह एक दिव्य स्तोत्र है। इसका नियमित पाठ करने से मन में शांति का अनुभव होता है व सुख समृद्धि व वैभव की प्राप्ति होती है। यह माना जाता है कि इस स्तोत्र में भक्ति भाव की इतनी सर्वोच्चता है कि यदि आपने सच्चे मन से इसका पाठ किया तो आपको साक्षात ईश्वर की अनुभति होती है।
भक्तामर स्तोत्र के पढ़ने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है। भक्तामर स्तोत्र को किसी भी समय प्रात:, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है। इसकी कोई समयसीमा निश्चित नहीं है, क्योंकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र हैं जिसमें भगवान की स्तुति है। धुन तथा समय का प्रभाव अलग-अलग होता है।
भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र है- ‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय् नम:।’
सर्वविघ्न विनाशक काव्य
भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा। मुद्योतकं दलित पाप तमोवितानम् ॥
सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा। वालंबनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥
झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले,
पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले,
कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये
आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से
प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)|
शत्रु तथा शिरपीड़ानाशक काव्य
यः संस्तुतः सकल वाङ्मय तत्वबोधा। द् उद्भूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः ॥
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय चित्त हरैरुदरैः। स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥
सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से
इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले,
गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है
उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा|
सर्वसिद्धिदायक काव्य
बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ। स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब। मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥
देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि
रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये
तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक
को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं|
जल-जंतु भयमोचक काव्य
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान्। कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥
कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं। को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥
हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने
लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं|
अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह
जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|
नेत्ररोग संहारक काव्य
सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश। कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥
प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं। नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥
हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ,
भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी
शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये,
क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
सरस्वती विद्या प्रसारक काव्य
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम्। त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति। तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु ॥६॥
विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही
बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द
करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं|
सर्व संकट निवारक काव्य
त्वत्संस्तवेन भवसंतति सन्निबद्धं। पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ॥
आक्रान्त लोकमलिनीलमशेषमाशु। सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥
आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये
पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक
में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों
से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|
सर्वारिष्ट योग निवारक काव्य
मत्वेति नाथ्! तव् संस्तवनं मयेद। मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु। मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥
हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह
स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों
के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद
कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|
भय-पापनाशक काव्य
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त दोषं। त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ॥
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव। पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥
सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर,
आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है|
जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही
सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|
कुकर विष निवारक काव्य
नात्यद् भूतं भुवन भुषण भूतनाथ। भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा। भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥
हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी
स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं
तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन,
जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
वांछापूरक काव्य
दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं। नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥
पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः। क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥
हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात्
मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते|
चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर
कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |
हस्तीमद निवारक काव्य
यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं। निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां। यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥
हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित
सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु
पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |
चोर भय व एनी भय निवारक काव्य वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि। निःशेष निर्जित जगत् त्रितयोपमानम् ॥ बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य। यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥ हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |.
आधि-व्याधिनाशक काव्य
सम्पूर्णमण्ङल शशाङ्ककलाकलाप्। शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ॥
ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं। कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥
पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण,
तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय
त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें
इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |
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राजवैभव प्रदायक काव्य
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्। नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ॥
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन। किं मन्दराद्रिशिखिरं चलितं कदाचित् ॥१५॥
यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी
विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है?
पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा
क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं |
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सर्व विजयदायक काव्य
निर्धूमवर्तिपवर्जित तैलपूरः। कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि ॥
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां। दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ् जगत्प्रकाशः ॥१६॥
हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी
इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत्
प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने
वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती |
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सर्वरोग निरोधक काव्य
नास्तं कादाचिदुपयासि न राहुगम्यः। स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ॥
नाम्भोधरोदर निरुद्धमहाप्रभावः। सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥१७॥
हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं
और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है
आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं
अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |
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शत्रु सैन्य स्तंभक काव्य
नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं। गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ॥
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति। विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥
हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला
जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं,
अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला
आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है |
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परविद्या छेदक काव्य
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा। युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु नाथ ॥
निष्मन्न शालिवनशालिनि जीव लोके। कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार नम्रैः ॥१९॥
हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा
नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन?
पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर
पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |
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संतान संपत्ति सौभाग्य प्रदायक काव्य
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं। नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ॥
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं। नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥
अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है
वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में,
तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे
किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता |
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सर्ववशीकरण काव्य
मन्ये वरं हरि हरादय एव दृष्टा। दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः। कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥
हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ,
जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है|
किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर
कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |
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भूत-पिशाच बाधा निरोधक काव्य
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्। नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं। प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालं ॥२२॥
सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे
पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें
धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से
युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |
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प्रेतबाधा निवारक काव्य
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस। मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं। नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥
हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल
और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं |
वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं |
इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है|
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शिरो रोगनाशक काव्य
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं। ब्रह्माणमीश्वरम् अनंतमनंगकेतुम् ॥
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं। ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥
सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य,
ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग,
अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |
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दृष्टिदोष निरोधक काव्य
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात्। त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् ॥
धाताऽसि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानात्। व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥
देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं|
तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं|
हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं|
और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
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आधा शीशी एवं प्रसव पीड़ा विनाशक काव्य
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ। तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ॥
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय। तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय ॥२६॥
हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो,
प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो,
तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और
संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो|
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शत्रु उन्मूलक काव्य
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्। त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! ॥
दोषैरूपात्त विविधाश्रय जातगर्वैः। स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥
हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने
यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को
प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में
भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?
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अशोक वृक्ष प्रतिहार्य काव्य
उच्चैरशोक तरुसंश्रितमुन्मयूख। माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ॥
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त तमोवितानं। बिम्बं रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति ॥२८॥
ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला,
आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है,
अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य
बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |
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सिंहासन प्रतिहार्य काव्य
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे। विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥
बिम्बं वियद्विलसदंशुलता वितानं। तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥
मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर,
आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर
आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले
सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|
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चमर प्रतिहार्य काव्य
कुन्दावदात चलचामर चारुशोभं। विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ॥
उद्यच्छशांक शुचिनिर्झर वारिधार। मुच्चैस्तटं सुर गिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥
कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी,
ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत,
जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है,
के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है|
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छत्र प्रतिहार्य काव्य
छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त। मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम् ॥
मुक्ताफल प्रकरजाल विवृद्धशोभं। प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥
चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले,
तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले,
आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके
तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|
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देव दुंदुभी प्रतिहार्य काव्य
गम्भीरतारवपूरित दिग्विभागस्। त्रैलोक्यलोक शुभसंगम भूतिदक्षः ॥
सद्धर्मराजजयघोषण घोषकः सन्। खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥
गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला,
तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ
और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला
दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है|
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पुष्पवृष्टि प्रतिहार्य
मन्दार सुन्दरनमेरू सुपारिजात। सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा ॥
गन्धोदबिन्दु शुभमन्द मरुत्प्रपाता। दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥
सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले
श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि
कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की
पंक्तियों की तरह आकाश से होती है|
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भामंडल प्रतिहार्य
शुम्भत्प्रभावलय भूरिविभा विभोस्ते। लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ॥
प्रोद्यद् दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या। दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम सौम्याम् ॥३४॥
हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को
तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति
एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी
चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है|
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दिव्य ध्वनि प्रतिहार्य
स्वर्गापवर्गगममार्ग विमार्गणेष्टः। सद्धर्मतत्वकथनैक पटुस्त्रिलोक्याः ॥
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसत्व। भाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥
आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक,
तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ,
स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित
करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है|
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लक्ष्मी प्रदायक काव्य
उन्निद्रहेम नवपंकज पुंजकान्ती। पर्युल्लसन्नखमयूख शिखाभिरामौ ॥
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः। पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥
पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की
किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं
वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं|
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दुष्टता प्रतिरोधक काव्य
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र। धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥
यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा। तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३७॥
हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका
ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने
वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य
प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
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वैभववर्धक काव्य
श्च्योतन्मदाविलविलोल कपोलमूल। मत्तभ्रमद् भ्रमरनाद विवृद्धकोपम् ॥
ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं। दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥
आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके
गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर
उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों
ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता|
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सिंह शक्ति संहारक काव्य
भिन्नेभ कुम्भ गलदुज्जवल शोणिताक्त। मुक्ताफल प्रकर भूषित भुमिभागः ॥
बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि। नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥
सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर,
गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को
विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है
वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता
जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है|
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सर्वाग्निशामक काव्य
कल्पांतकाल पवनोद्धत वह्निकल्पं। दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगम् ॥
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं। त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥
आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत,
प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त,
संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई
वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है|
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भुजंग भयभंजक काव्य
रक्तेक्षणं समदकोकिल कण्ठनीलं। क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् ॥
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस्। त्वन्नाम नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥
जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है,
वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले,
क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए,
सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है|
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युद्ध भय विनाशक काव्य
वल्गत्तुरंग गजगर्जित भीमनाद। माजौ बलं बलवतामपि भूपतिनाम्! ॥
उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापविद्धं। त्वत्- कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥
आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से
उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना,
उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये
अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है|
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सर्व शांतिदायक काव्य
कुन्ताग्रभिन्नगज शोणितवारिवाह। वेगावतार तरणातुरयोध भीमे ॥
युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्। त्वत्पाद पंकजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥
हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष,
भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए,
तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में,
दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं|
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भयानक जल विपत्ति विनाशक काव्य
अम्भौनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र। पाठीन पीठभयदोल्बणवाडवाग्नौ ॥
रंगत्तरंग शिखरस्थित यानपात्रास्। त्रासं विहाय भवतःस्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥
क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा
भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के
शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य,
आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं|
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सर्व भयानक रोग विनाशक काव्य
उद्भूतभीषणजलोदर भारभुग्नाः। शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः ॥
त्वत्पादपंकज रजोऽमृतदिग्धदेहा। मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥
उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए,
शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके,
ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त
शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं|
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बंधन विमोचक काव्य
आपाद कण्ठमुरूश्रृंखल वेष्टितांगा। गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः ॥
त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः। सद्यः स्वयं विगत बन्धभया भवन्ति ॥४६॥
जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है
और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं
ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण
करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है|
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मत्तद्विपेन्द्र मृगराज दवानलाहि। संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् ॥
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव। यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥
जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है
उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र
जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो
डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है|
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सर्व भय निवारक काव्य
स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धां। भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् ॥
धत्ते जनो य इह कंठगतामजस्रं। तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥
हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि)
गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी
स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को
अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है|
Singer | Lata Mangeshkar |
Music Label | LM Music |