Bhaktamar Stotra in sanskrit:भक्तामर स्तोत्र के नियमित पढ़ने से कैंसर से मुक्ति मिल सकती है, खासतौर पर पद 45 के पढ़ने से। भक्तामर स्तोत्र की रचना कब हुई, कैसे हुई और क्यों हुई, कैसे पढ़ें, कब पढ़ें और किस तरह पढ़ें? आदि सब जानें।

भक्तामर स्तोत्र का जैन धर्म में बडा महत्व है। आचार्य मानतुंग का लिखा भक्तामर स्तोत्र सभी जैन परंपराओं में सबसे लोकप्रिय संस्कृत प्रार्थना है।

इस स्तोत्र के बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। इसमें सबसे प्रसिद्ध किदवंती यह है कि आचार्य मानतुंग को जब राजा भोज ने जेल में बंद करवा दिया था। और उस जेल के 48 दरवाजे थे जिन पर 48 मजबूत ताले लगे हुए थे। तब आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा हर श्लोक की रचना ताला टूटता गया। इस तरह 48 शलोको पर 48 ताले टूट गए।

मानतुंग आचार्य 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है। मंत्र शक्ति में आस्था रखने वालो के लिए यह एक दिव्य स्तोत्र है। इसका नियमित पाठ करने से मन में शांति का अनुभव होता है व सुख समृद्धि व वैभव की प्राप्ति होती है। यह माना जाता है कि इस स्तोत्र में भक्ति भाव की इतनी सर्वोच्चता है कि यदि आपने सच्चे मन से इसका पाठ किया तो आपको साक्षात ईश्वर की अनुभति होती है।

भक्तामर स्तोत्र के पढ़ने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है। भक्तामर स्तोत्र को किसी भी समय प्रात:, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है। इसकी कोई समयसीमा निश्चित नहीं है, क्योंकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र हैं जिसमें भगवान की स्तुति है। धुन तथा समय का प्रभाव अलग-अलग होता है।

भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र है- ‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय् नम:।’

सर्वविघ्न विनाशक काव्य

भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा। मुद्योतकं दलित पाप तमोवितानम् ॥
सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा। वालंबनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥

झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले,
पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले,
कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये
आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से
प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)|

शत्रु तथा शिरपीड़ानाशक काव्य

यः संस्तुतः सकल वाङ्मय तत्वबोधा। द् उद्भूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः ॥
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय चित्त हरैरुदरैः। स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥

सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से
इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले,
गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है
उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा|

सर्वसिद्धिदायक काव्य

बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ। स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब। मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥

देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि
रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये
तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक
को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं|

जल-जंतु भयमोचक काव्य

वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान्। कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥
कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं। को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥

हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने
लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं|
अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह
जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|

नेत्ररोग संहारक काव्य

सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश। कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥
प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं। नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥

हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ,
भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी
शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये,
क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|

सरस्वती विद्या प्रसारक काव्य

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम्। त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति। तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु ॥६॥

विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही
बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द
करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं|

सर्व संकट निवारक काव्य

त्वत्संस्तवेन भवसंतति सन्निबद्धं। पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ॥
आक्रान्त लोकमलिनीलमशेषमाशु। सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥

आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये
पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक
में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों
से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|

सर्वारिष्ट योग निवारक काव्य

मत्वेति नाथ्! तव् संस्तवनं मयेद। मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु। मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥

हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह
स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों
के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद
कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|

भय-पापनाशक काव्य

आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त दोषं। त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ॥
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव। पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥

सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर,
आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है|
जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही
सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|

कुकर विष निवारक काव्य

नात्यद् भूतं भुवन भुषण भूतनाथ। भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा। भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥

हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी
स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं
तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन,
जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |

वांछापूरक काव्य

दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं। नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥
पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः। क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥

हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात्
मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते|
चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर
कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |

हस्तीमद निवारक काव्य

यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं। निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां। यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥

हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित
सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु
पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |

चोर भय व एनी भय निवारक काव्य वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि। निःशेष निर्जित जगत् त्रितयोपमानम् ॥ बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य। यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥ हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |.

आधि-व्याधिनाशक काव्य

सम्पूर्णमण्ङल शशाङ्ककलाकलाप्। शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ॥
ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं। कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥

पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण,
तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय
त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें
इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |